छमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
रहिमन जगत-उधार को, और ना कोऊ उपाय।।
जेहि रहीम मन आपनो कीन्हो चारू चकोर।
नीसी-बसर लाग्यो रह, कृष्ण्चंद्रा की ओर।।
जो रहीम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।।
तरूवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान।।
खीरा सिर से काटिये मलियत नमक बनाय।
रहिमन करूए मुखन को चहियत इहै सजाय।।
रहिमन कौ का करै, ज्वारी चोर लबार।
जो पट रखन हर है, माखन चंखन हर।।
खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान।।
रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार।।
रहिमन गली है सकरी, दूजो नहीं ठहराही।
आपु अहै, तो हरि नहीं, हरि तो आपुन नहीं।।
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।।
रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुहँ स्याह।
नहीं छलन को परतिया, नहीं कारन को ब्याह।।
अमरबेली बिनु मूल की, प्रतिपलट है ताहि।
रहिमन ऐसे प्रभुहि ताजी, खोजत फिरिए कही।।
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय।।
जाल परे जल जात बही, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को तौ ना चड़ती च्चोह।।
गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते काढि।
कूपहु ते कहूँ होत है, मन काहू को बाढ़ी।।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यावे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
धनी रहीम गति मीन की, जल बिच्छुरत जिय जाय।
जियत कंज तजि अनत बसी, कहा भौर को भय।।
जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दु:ख मानत नाहिं।।
रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दु:ख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
प्रीतम छबी नैनन बसी, पर-छबी कहा समाय।
भरी सराय रहींम लखि, पथिक आप फिर जाय।।
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि।।
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।।
रहिमन पैदा प्रेम को, निमट सिलसिली गैल।
बीलछत पाव पिपीलिको, लोग लड़ावत बैल।।
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादर वक्ता भए हमको पछे कौन।।
रहिमन प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून।
ज्यों जर्दी हरदी तजै, तजै सफेदी चून।।
रहिमन विपदा हु भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाई।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाइ।।
मान सहित विष खाय कै, सम्भु भये जगदीस।
बिना मान अमृत पिये, राहु कटासो सीस।।
रहिमन मनहि लगाईं कै, देखि लेहू किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।।
जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।
रहिमन वे नर मरि चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहलेवे मुये, जिन मुख निकसत नाहिं।।
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय।।
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय।
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय।।
बड़े काम ओछो करै, तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहे न कोय।।
माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि।।
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरू मीठे पर लौन।।
एकहि साधै सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचबो, फूलहि फलहि अघाय।।
रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि।।
दीबो चहै करतार जिन्हैं सुख, सो तौ रहीम टरै नहिं टारे।
उद्यम कोऊ करौ न करौ, धन आवत आपहिं हाथ पसारे।।
रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय।।
रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर।।
देव हँसैं सब आपसु में, बिधि के परपंच न जाहिं निहारे।
बेटा भयो बसुदेव के धाम, औ दुंदुभी बाजत नंद के द्वारे।।
बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय।।
मन मोती अरू दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय।।
दोनों रहिमन एक से, जब लौं बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु वसंत कै माहि।।
रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत।।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना चुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग।।